Onth | Ashok Vajpeyi
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ओंठ | अशोक वाजपेयी
तराशने में लगा होगा एक जन्मांतर
पर अभी-अभी उगी पत्तियों की तरह ताज़े हैं।
उन पर आयु की झीनी ओस हमेशा नम है
उसी रास्ते आती है हँसी
मुस्कुराहट
वहीं खिलते हैं शब्द बिना कविता बने
वहीं पर छाप खिलती है दूसरे ओठों की
वह गुनगुनाती है
समय की अँधेरी कंदरा में बैठा
कालदेवता सुनता है
वह हंसती है।
बर्फ़ में ढँकी वनराशि सुगबुगाती है
वह चूमती है।
सदियों की विजड़ित प्राचीनता पिघलती है
रति में
प्रार्थना में
स्वप्न में
उसके ओंठ बुदबुदाते हैं...
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